मेको की पुरी: एक सीखने की यात्रा
उत्तर भारत के एक छोटे-से गांव में, मेको नाम की एक मासूम और चुलबुली लड़की रहती थी। उसकी उम्र मात्र आठ साल थी, लेकिन उसकी आंखों में बड़े सपने और दिल में गहरी उम्मीदें थीं।
मेको को अपने परिवार के हर सदस्य से बहुत लगाव था, खासकर अपनी दादी से, जिनके हाथों से बने पकवानों की खुशबू पूरे घर में फैल जाती थी।
हर रविवार की सुबह, जब सूरज की किरणें खिड़कियों से झांकने लगती थीं, दादी अपने पुराने पीतल के बर्तन में आटा गूंथने लगती थीं। मेको बड़े ध्यान से उनकी हर गतिविधि को देखती, और उसे दादी के हाथों से बनी गरमागरम पुरी बहुत पसंद थी।
एक दिन, मेको ने खुद पुरी बनाने की ठान ली। उसने दादी की तरह आटा गूंथा, लेकिन आटा या तो सख्त हो गया या चिपचिपा। फिर भी, उसने हार नहीं मानी और कढ़ाई में पुरी तलने लगी। लेकिन उसकी हर पुरी या तो जल गई या टूटकर बिखर गई।
दोपहर में, दादी ने मेको को रसोई में आटे और तेल से सना हुआ देखा और प्यार से पूछा, "क्या हुआ, बिटिया?"
मेको ने सिर झुकाकर कहा, "मैं पुरी बनाना चाहती थी, लेकिन मैं असफल हो गई।" दादी ने मुस्कुराते हुए कहा, "असफलता भी सीखने का हिस्सा है, बेटा। चलो, मैं तुम्हें सिखाती हूं।"
अगले रविवार को, मेको ने खुद पुरी बनाई और अपने परिवार को परोसी। मेको की बनाई पुरी देखकर दादी की आंखों में गर्व के आंसू आ गए, और उन्होंने कहा, "देखो, मेरी मेको अब बड़ी हो गई है और मेरे जैसे पुरी बना सकती है।"